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चीन-पाकिस्तान के सहयोग से अफगानिस्तान पर कब्ज़ा था आसान लेकिन तालिबान के सामने हैं कई चुनौतियाँ

चीन और पाकिस्तान के सहयोग से तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा तो कर लिया लेकिन तालिबान के सामने अभी और भी कई चुनौतियां हैं, जिसे बंदूक के जोर पर नहीं बल्कि कूटनीति और सियासी तरीके से निबटाना होगा.

अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद से ही तालिबान सरकार बनाने की चुनौतियों में उलझा हुआ है. पिछले आठ-दस दिनों से तालिबान के कई वरिष्ठ नेता अफगानी नेताओं के साथ सत्ता हस्तांतरण को लेकर उलझे हुए हैं. मुल्ला बरादर जैसे तालिबान के नंबर दो नेता के काबुल पहुंचने के बाद भी सरकार गठन को लेकर स्थिति अभी तक साफ नहीं हो सकी है. तालिबान के सामने अफगानिस्तान में कई चुनौतियां खड़ी हैं, जिनसे इस आतंकी संगठन को हर हाल में निपटना ही पड़ेगा. 1996 से लेकर 2001 तक चले तालिबान शासन को उस समय पाकिस्तान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्कमेनिस्तान ने मान्यता भी दी थी.

पाकिस्तानी राजनीतिक विश्लेषक और लेखक सबटेन अहमद डार ने रूसी समाचार एजेंसी “स्पूतनिक” को बताया कि अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात का यह अचानक उदय स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि तालिबान को उन सभी प्रांतों में आम जनता के किसी भी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा. जिसके कारण अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा जमा लिया.

उन्होंने तालिबान के कब्जे के पीछे तीन प्रमुख कारण बताए. डार ने कहा कि अमेरिका द्वारा स्थापित काबुल शासन की अक्षमता ने अफगानिस्तान की संपत्ति को लूटा और बाद में अफगान लोगों को बुनियादी अधिकार प्रदान करने में विफल रहा. दूसरा अफगान नेशनल आर्मी की अक्षमता, जो तालिबान को पीछे ढकेलने में विफल रही और तीसरा अफगान लोगों की यह चिंता कि अगर वे विद्रोही समूह से लड़ते हैं तो देश गृहयुद्ध के एक नए घेरे में आ जाएगा.

तालिबान के सामने सबसे बड़ी चुनौती सभी पक्षों को एकसाथ लेकर चलने की है. इतना ही नहीं, उसे इन पक्षों के बीच सरकार में प्रतिनिधित्व का बटवारा भी करना होगा. अगर किसी भी पक्ष को उचित शेयर नहीं मिला तो वह सरकार को छोड़कर विद्रोह का रास्ता अख्तियार कर सकता है. अफगानिस्तान का इतिहास भी काफी रक्तरंजित रहा है. अगर अफगानिस्तान के किसी एक भी प्रांत से विरोध का स्वर उठा तो पूरे देश में तालिबान शासन खतरे में पड़ जाएगा.

तालिबान ने खुद कहा है कि वह पूरे देश को इस्लामिक शरिया कानून के हिसाब से चलाएगा. उसका यह भी आरोप है कि इससे पहले की अशरफ गनी सरकार इस्लामी मूल्यों को तोड़ रही थी. यही कारण है कि तालिबान के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती संविधान का निर्माण बताया जा रहा है. इसमें भी तालिबान को लंबे समय तक शांति बनाए रखने के लिए पश्तून, हजारा, उज्बेक जैसे कई समूहों को एक मंच पर लाना होगा.

तालिबान को जल्द से जल्द अफगान नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी. इसमें उन लोगों को भोजन, घर और कारोबारी स्वतंत्रता देना भी शामिल है. तालिबान के कब्जे के बाद से ही अफगानिस्तान में हालात बहुत बुरे हैं. लोग दूसरी बार तालिबान के अत्याचारों का सामना करने से डरे हुए हैं. पूरे देश में अधिकतर व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद हैं. अगर तालिबान को सरकार चलाना है तो उसे कारोबार और सुरक्षा पर बहुत काम करना पड़ेगा.

तालिबान के ऊपर अब इंट्रा अफगान वार्ता को सफल बनाने की जिम्मेदारी भी आ गई है. उत्तरी अफगानिस्तान के विद्रोही गुट कभी भी तालिबान के आगे झुके नहीं हैं. यही कारण है कि तालिबान को अब भी पंजशीर घाटी, मजार-ए-शरीफ जैसे उत्तरी इलाकों से खतरा महसूस हो रहा है. उत्तरी अफगानिस्तान के विरोधी एवं प्रतिद्वंदी दलों के बीच साझा आधार स्थापित करने के लिए तालिबान को नई पेशकश के साथ विरोधी गुटों से बाद करना होगा.

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में तालिबान की छवि, एक आतंकी समूह की है. ऐसे में  तालिबान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह भरोसा देना होगा कि वह पहले से बदल गया है. अफगानिस्तान की धरती अब आतंकवादी गुटों के लिए सुरक्षित ठिकाना नहीं बनेगी. इतना ही नहीं, तालिबान या दूसरे आतंकी संगठन अफगान जमीन का इस्तेमाल किसी भी देश के खिलाफ हमले करने के लिए नहीं करेंगे. पुराना इतिहास रहा है कि तालिबान ने अपने वादों को कभी पूरा नहीं किया है. इसलिए, इस आतंकी गुट को इस बार वादों पर खरा भी उतरना होगा.

ऐसे में सवाल उठता है की अफगानिस्तान में जो तालिबान के विरोध में लोग हथियारबंद होकर प्रदर्शन कर रहे हैं, ऐसी स्थिति को तालिबान अगर बन्दुक के जोर पर निबटाना चाहेगा तो उसके लिए मुश्किलें पैदा हो सकती हैं. तो क्या तालिबान सच में अपने विचार और सिद्धांतों के साथ समझौता करेगा ?

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