
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी और तालिबानी सरकार के आमद के पीछे चीन की साजिश और पाकिस्तान के दलाली ने भरपूर रूप से काम किया, कारगर तरीके से काम किया है. नतीजा सामने है, आज अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार काबिज है.
अफगान नागरिक सरकार के शानदार पतन ने सभी को हैरान कर दिया है. अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों की सुरक्षा राजनीतिक सहायता जल्दी से सुलझ गई क्योंकि तालिबान ने देशभर में तेजी से लाभ कमाया, कुछ ही समय में राजधानी काबुल के दरवाजे पर खड़ा हो गया.
जैसे ही टीवी स्क्रीन सोशल मीडिया पर अमेरिका अन्य पश्चिमी देशों के अपने अधिकारियों नागरिकों की निकासी के नाटकीय दृश्य सामने आए, चीन की प्रचार मशीनरी ने अफगानिस्तान की स्थिति से निपटने के लिए अमेरिका को गड़बड़ करने के लिए फटकार लगाई. इसके साथ ही, चीन के सरकारी मिडिया “ग्लोबल टाइम्स” ने एक संपादकीय प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया था कि “चीन युद्ध के बाद के पुनर्निर्माण में शामिल हो सकता है, अफगानिस्तान के भविष्य के विकास में मदद करने के लिए निवेश प्रदान कर सकता है”
चीनी प्रतिक्रिया ने अपने पड़ोस से अमेरिका की वापसी पर बीजिंग के उत्साह को संक्षेप में प्रस्तुत किया. बीजिंग ने लंबे समय से मध्य एशिया में अपना प्रभुत्व जमाने की मांग की है, रूस के साथ, यह शंघाई सेंट्रल ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) के माध्यम से क्षेत्रीय गतिशीलता को आकार दे रहा है.
हालांकि, लंबे समय से अफगानिस्तान पहेली का हिस्सा गायब था. अमेरिकी सैनिकों की तैनाती ने वास्तव में चीन को अपने आर्थिक पदचिह्न् का विस्तार करने के लिए आवश्यक सुरक्षा कवच स्थिरता प्रदान की. फिर भी, यह कभी भी अमेरिका अफगानिस्तान में मौजूद अन्य पश्चिमी देशों के साथ पूरी तरह से मुखर नहीं हो सका.
पश्चिम का बाहर निकलना अब चीन को अफगानिस्तान पर अपना जादू चलाने के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि प्रदान करता है. इससे पहले 28 जुलाई को, चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने उत्तरी तटीय शहर तियानजिन में अफगान तालिबान राजनीतिक आयोग के प्रमुख मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में नौ सदस्यीय तालिबान प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी की थी. यी ने तालिबान की एक महत्वपूर्ण सैन्य राजनीतिक ताकत के रूप में प्रशंसा की थी.
बिरदार एंड कंपनी के साथ बीजिंग का सार्वजनिक जुड़ाव अफगानिस्तान के प्रति उसके सख्ती से लेन-देन के दृष्टिकोण का लक्षण है. यह चीन द्वारा तालिबान के साथ दशकों से चली आ रही दोस्ती को सीमित करता है. 2001 में 9/11 के हमलों से ठीक पहले, चीन ने अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के साथ अधिक आर्थिक तकनीकी सहयोग के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. चीन ने अफगानिस्तान में सभी राजनीतिक गुटों पर अपने दांव लगाने की कोशिश की. तालिबान प्रतिनिधिमंडल की मेजबानी करने से कुछ दिन पहले, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद अशरफ गनी को फोन किया था, शांति पुनर्निर्माण के लिए समर्थन की पेशकश की थी, लेकीन चीन अपने इस साजिश में कामयाब नहीं हो सका था.
अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद, खाली हुए स्थान को भरने में चीन अब तेजी दिखाता हुआ नजर आ सकता है क्योंकि चीन की नजर अफगानिस्तान के अकूत खनिज भण्डार पर है. ये वो खनिज हैं जो दुर्लभ हैं और आधुनिक तकनीक के लिए जरुरी हैं. इन खदानों में ऐसे भी खनिज हैं जो सैन्य-उपयोग के लिए जरुरी उपकरणों के लिए आवश्ययक होते हैं. इसके साथ ही चीन अपनी कई परियोजनाओं को अफगानिस्तान में शुरू करने को उत्सुक है, इसलिए अफगानिस्तान में यह तालिबानी सरकार से मिल-बैठकर एक ऐसा मसौदा जल्द ही तैयार करता हुआ दिख सकता है, जो चीन के आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकता है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके कद को बढाता हुआ दिख सकता है. वैसे अफगानिस्तान में चीन की दिलचस्पी का एक कारण यह भी है कि वह तालिबान और पाकिस्तान के साथ मिलकर, भारत के खिलाफ अपनी दुश्मनी में जीत हासिल कर सकता है.