
अफगानिस्तान में सत्ता को पलट कर तालिबान को कब्ज़ा दिलाने में अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय भगोड़े के रूप में अपनी पहचान बनायीं है. लेकिन तालिबान नाम के इस हॉरर मूवी का स्क्रिप्ट राइटर पाकिस्तान रहा और डायरेक्टर के रूप में पहचान बनी रूस और चीन की. इस पुरे मामले में भारत अब दर्शक के रोल में है जो बड़े सतर्क नज़रों से इस हॉरर मूवी के हरेक सीन को देख रहा है, समझने की कोशिश कर रहा है, अपने अगले कदम को उठाने से पहले, अपनी कूटनीति को परख रहा है.
अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद पूरा गणित बदल गया है. पड़ोसी मुल्क को ‘सजाने और बनाने’ में जुटे रहे भारत के पास ‘वेट एंड वॉच’ के सिवा कोई विकल्प नहीं है. वहीं, चीन और रूस के बीच पकती खिचड़ी भारत के लिए नए सिरे से चिंता बनी है. ज्यादा तकलीफ रूस के पल्टी मारने से है. वह हमारा बेहद करीबी दोस्त रहा है. हर मुश्किल में साथ निभाया है. ऐसे में आगे भारत के लिए क्या ‘सीन’ बनेगा यह बड़ा सवाल होगा.
पाकिस्तान कैसे बना स्क्रिप्ट राइटर ?
3,00,000 ट्रेंड अफगानी सैनिकों ने 70-80,000 लड़ाकुओं के आगे कैसे हथियार डाल दिए, यह अब तक किसी के पल्ले नहीं पड़ रहा था ? लेकिन, अब इसका सच सामने आ गया है. काबुल पर कब्जे से कुछ दिन पहले अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच लंबी बातचीत हुई थी. इस बातचीत में गनी ने अफगानिस्तान के सिर पर मंडराते तालिबान के खतरे से बाइडेन को वाकिफ कराया था. किसी को दूर-दूर तक अंदेशा नहीं था कि तालिबान मुल्क को इतनी जल्दी अपनी गिरफ्त में ले लेगा. बाइडेन ने भी बातचीत में गनी को यही आश्वासन दिया था कि अगर उन्हें जरूरत होगी तो और सैन्य सहायता उपलब्ध कराई जाएगी. बाइडेन ने अफगानी सैनिकों की भी प्रशंसा की थी और कहा था कि वे बहुत अच्छी तरह से ट्रेंड हैं. उनकी संख्या भी तालिबानी लड़ाकों के मुकाबले कहीं ज्यादा है. इसी कॉल में गनी ने तालिबान का डर भी जताया था. उन्होंने कहा था कि देश में तालिबान के कदम तेजी से बढ़ रहे हैं. उसने खुलकर मोर्चा खोल दिया है. इसमें पूरी तरह पाकिस्तान की प्लानिंग है. उसे लॉजिस्टिक सपोर्ट भी मिल रहा है. उसकी मदद के लिए कम से कम 10-15,000 अंतरराष्ट्रीय आतंकी लगे हैं. इनमें मुख्य रूप से पाकिस्तानी आतंकी हैं. 23 जुलाई को बाइडेन और अशरफ गनी के बीच 14 मिनट तक यह बातचीत हुई थी. 15 अगस्त को अशरफ गनी देश छोड़कर भाग गए थे और तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया था.
इस बात से यह तो साफ हो जाता है कि पाकिस्तान कितना बड़ा दोगला है. दुनिया के सामने वह खूब बेचारा बनता है, लेकिन असल में वही दुनियाभर में ‘टेरर फैक्ट्री’ चला रहा है. यह बात कई बार साबित भी हो चुकी है. अफगानिस्तान के मामले में भी वह दुनिया की आंखों में यही धूल झोंकता रहा कि वह अफगानिस्तान सरकार की लगातार मदद कर रहा है. लेकिन, हकीकत में वह तालिबान को साजो-समान देकर पूरी मजबूती के साथ अफगानिस्तान पर कब्जा करने के लिए उसे तैयार कर रहा था. भारत उसके इन पैंतरों से परिचित है. लेकिन, अमेरिका उसका असली चेहरा पहचान पाने में गच्चा खा गया. पाकिस्तान ने दोहरी चाल चली. वह यह थी कि अगर अफगानी फौजें तालिबान को रोक लेती हैं तो वह अफगानिस्तान का भला बना रहेगा. वहीं, तालिबान ने प्लान के मुताबिक काम कर दिखाया तो वह सीधे उसका सबसे बड़ा हितैषी बन जाएगा.
चीन और रूस कैसे बने डायरेक्टर ?
अफगानिस्तान पर तालिबान की फतह के बाद दुनियाभर के आतंकी संगठन फूलकर ‘कुप्पा’ हो गए हैं. इसका ताजा उदाहरण तालिबान को अल-कायदा की बधाई है. तालिबान को बधाई देते हुए उसने कहा था-“ईश्वर का शुक्रिया जिसने अमेरिका को बेइज्जत किया और हरा दिया … अमेरिका की कमर तोड़ दी, वैश्विक छवि खराब कर दी और भगा दिया… अफगानिस्तान की इस्लामिक धरती से. लेवंट, सोमालिया, यमन, कश्मीर और बाकी सभी इस्लामिक जमीनें इस्लाम के दुश्मनों के शिकंजे से आजाद हो जाएं. दुनियाभर में मुस्लिम कैदियों को आजादी मिले.” इस बधाई में कुछ बातें गौर करने वाली हैं. इसमें न तो रूस के चेचन्या का जिक्र किया गया न ही चीन के शिनजियांग का. माना जा रहा है कि यह काम बहुत सोच-समझकर किया गया है. जिस तरह से हाल में रूस और चीन ने तालिबान का समर्थन किया है, उसे देखते हुए दोनों महाशक्तियों को आतंकी खफा नहीं करना चाहते हैं. अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकी या आतंकवादियों को पनाह देने के लिए नहीं किए जाने संबंधी प्रस्ताव पर भी रूस और चीन ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया. फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका की तरफ से पेश प्रस्ताव का भारत समेत कुल 13 देशों ने समर्थन किया. विपक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा. भारत की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने यह प्रस्ताव पारित किया है. इन दोनों देशों का तालिबान के साथ मजबूत गठजोड़ बनता दिख रहा है. इस प्रस्ताव को पारित करने में भारत ने सक्रिय भूमिका निभाई.
अब भारत के सामने कैसी-कैसी हैं चुनौती ?
पाकिस्तान के दोगले रवैये के कारण भारत के रिश्ते उसके साथ कभी अच्छे नहीं रहे. वहीं, गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों की झड़प के बाद ड्रैगन से भी हमारे संबंध पिछले कुछ समय से खराब हैं. चीन की विस्तारवादी नीतियों का भारत हमेशा विरोध करता आया है. वह हर तरफ से भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है. क्षेत्र में भारत ही चीन का सबसे बड़ा कॉम्पिटीटर है. चीन को भी इस बात का पूरा एहसास है. भारत और चीन के बीच आज भी व्यापारिक रिश्ते बने हुए हैं. चीन के लिए भारत बहुत बड़ा मार्केट है. यही कारण है कि वह ‘भिखमंगे पाकिस्तान’ के लिए पूरी तरह ‘कंजम्पशन किंग इंडिया’ को छोड़ नहीं सकता है.
हालांकि, भारत और चीन के बीच व्यापारिक रिश्तों में काफी असंतुलन है. इस असंतुलन को लगातार कम करना होगा. अच्छी बात यह है कि यह कम भी हो रहा है. 2018-19 में भारत का चीन के साथ ट्रेड डेफिसिट यानी व्यापार घाटा 53.57 अरब डॉलर का था. यह 2020-21 में घटकर 44.02 अरब डॉलर रह गया. जब किसी देश को एक्सपोर्ट कम और उससे इंपोर्ट ज्यादा होता है तो उसे ट्रेड डेफिसिट कहा जाता है. दूसरी अच्छी बात यह हुई है कि 2020-21 में चीन को होने वाले एक्सपोर्ट में इजाफा हुआ है. इस दौरान 21.19 अरब डॉलर का निर्यात हुआ. वहीं, वित्त वर्ष 2019-20 में 16.61 अरब डॉलर का एक्सपोर्ट हुआ था. भारत को व्यापार के रास्ते को खुला रखना चाहिए. भारत की ‘सुपर कंजम्पशन मार्केट’ की ताकत से दुनिया ही नहीं, चीन भी परिचित है. वह कतई इसे नुकसान नहीं पहुंचाना चाहेगा. हालांकि, थोड़ी चिंता रूस ने बढ़ाई है. लेकिन, वह हमारा बहुत अच्छा दोस्त रहा है. उसके साथ हमारे व्यक्तिगत और कारोबारी रिश्ते बहुत अच्छे हैं. उसके रूठने पर भी हम उसे मना सकते हैं.
अब भारत के लिए क्या हैं विकल्प ?
अमेरिका, यूरोप और खाड़ी के कई देशों के साथ भारत के संबंध पिछले कुछ साल से काफी अच्छे हुए हैं. रूस और अमेरिका पारंपरिक रूप से एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी रहे हैं. चीन भी अमेरिका को चुनौती देने लगा है. दुश्मन-दुश्मन दोस्त हो जाते हैं, कुछ वही स्थिति रूस और चीन के साथ भी बन गई है. तालिबान मामले में दोनों अपने हितों के लिए साथ आए हैं. भारत को इससे बहुत घबराना नहीं चाहिए. भारत के अमेरिका और रूस दोनों के साथ सामरिक और व्यापारिक रिश्ते हैं. उन्हें उसे बनाए रखना होगा. किसी एक खेमे की तरफ पूरी तरह चले जाना उसे नुकसान पहुंचा सकता है. तालिबान के साथ भी भारत ने बातचीत की पहल शुरू की है. यह उसका सही कदम है. तालिबान ने भी अब तक भारत के साथ अच्छे रिश्ते रखने की ही बात की है. भारत क्षेत्र में अलग-थलग नहीं रह सकता है. उसे सभी के साथ संतुलन बनाते हुए अपनी जगह बनाए रखना होगा. साथ ही समय के साथ दूसरों पर निर्भरता घटानी होगी. यह काम उसे हर मोर्चे पर करना होगा. फिर चाहे वह तकनीकी क्षेत्र हो या सामरिक. अफगानिस्तान पूरी दुनिया के लिए सबक है. वह यह है कि भविष्य की चुनौतियों से वही देश निपट पाएगा जो खुद अपने पैरों पर खड़ा होगा. दूसरे आपकी लड़ाई नहीं लड़ेंगे.