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सिन्धु जल समझौता : अयूब खान के चमचागिरी में आकर, नेहरु ने भारत का किया “बड़ा नुकसान”

“सिन्धु जल समझौता” के 61वें वर्ष पर यह विमर्श का विषय है कि क्या अयूब खान के चिकनी-चुपड़ी बातों में और चमचागिरी से प्रभावित होकर, भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने भारत का “बहुत बड़ा नुकसान” कर दिया ?

दूसरा सवाल आज भी कायम है कि क्‍या भारत और पाकिस्‍तान एक-दूसरे के साथ शांति से रह सकते हैं ? इसके जवाब में “सिन्धु जल संधि” एक बड़े उदाहरण के रूप में दिखता है. चार-चार युद्ध लड़ चुके भारत और पाकिस्‍तान के बीच पिछले 61 साल से यह संधि बरकरार है. संधि का तीसरा पक्ष विश्‍व बैंक है जिसकी इस संधि की शर्तें तय करने में अहम भूमिका थी. अगर देखा जाए तो इस समझौते को नेहरु की एक “बड़ी गलती” की तरह देखा जा सकता है. इसकी वजह भी है क्योंकि सतही तौर पर देखने में भले ही यह समझौता बराबरी का लगे लेकिन असल में यह भारत को ताजे पाने के एक बड़े स्‍त्रोत से वंचित करता हुआ दिखता है. इसलिए समझौते को तत्कालीन  प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की एक बड़ी गलती मानी जाती है. शायद नेहरू को कराची में जनरल अयूब खान की मीठी-मीठी बातें भा गई हो या वो उनके चमचागिरी पर प्रसन्न हो गए हों. लेकिन नेहरु की यह गलती, आज भी भारत के लिए खामियाजा ही कही जाएगी.

सिंधु नदी सिस्‍टम को कैसे बांटा जाए ? यह बंटवारे के बाद भारत और पाकिस्‍तान के सामने मौजूद कई चुनौतियों में से एक थी. बड़ी नदियों का मुहाना भारत की तरफ था. सिंधु की सभी पांचों सहायक नदियों का उद्गम स्‍थल भारत में है. बंटवारा से पहले भी सिंध और पंजाब के बीच पानी के बंटवारे पर विवाद होता रहा था. पाकिस्‍तान में पानी के लिए हथियार उठाने की आवाजें तेज हो रही थीं. आखिरकार दोनों देशों को विश्‍व बैंक के रूप में एक मध्‍यस्‍थ मिला और किसी समझौते तक पहुंचने के लिए डिप्‍लोमेसी शुरू हो गई.

वर्ष 1959 में ढाका के रूटीन दौरे पर जाते हुए पाकिस्‍तान के राष्‍ट्रपति अयूब खान ने अचानक पालम में डेरा डाला. वह जवाहरलाल नेहरू से मिलने आए थे. पालम में दोनों नेताओं के बीच मुलाकात करीब दो घंटे तक चली. कई मुद्दों पर योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ने पर रजामंदी हुई. कुछ वक्‍त के लिए लगा कि सब मसले सुलझ सकते हैं. पानी के बंटवारे को लेकर भी चर्चा अंतिम चरण में थी. समझौते पर धूमधाम से हस्‍ताक्षर की योजना बनाई गई. इससे नेहरू को अयूब खान के पालम आने के जवाब में अपनी दोस्‍ती दिखाने का मौका भी मिलता. तय हुआ कि नेहरू पाकिस्‍तान जाएंगे. पंडित नेहरू की ऐतिहासिक पाकिस्‍तान यात्रा 19 सितंबर 1960 से 23 सितंबर 1960 तक चली. यह उनकी आखिरी पाकिस्‍तान यात्रा थी.

1960 के उस समझौते के जरिए सिंधु नदी सिस्‍टम के दो टुकड़े कर दिए गए. तीन पश्चिमी नदियां (सिंधु, झेलम और चेनाब) पाकिस्‍तान के हिस्‍से में चली गईं जबकि तीन पूर्वी नदियां (सतलज, रावी और बेअस) भारत में आ गईं. भले ही यह बराबरी का समझौता लगे मगर हकीकत में भारत पूरे सिस्‍टम का 80.52 प्रतिशत पानी पाकिस्‍तान को देने पर राजी हो गया. इसके अलावा भारत ने पाकिस्‍तान को पश्चिमी नदियों पर नहरें बनाने के लिए 83 पौंड स्‍टर्लिंग भी दिए. भारत ने पूर्वी नदियों पर संपूर्ण अधिकार के लिए पश्चिमी नदियों पर अहम पोजिशन छोड़ दी. नेहरु के द्वारा लिया गया यह निर्णय, भारतीय इतिहास की “सबसे बड़ी बेवकूफी” के रूप में दर्ज हो गया.

हालांकि समझौते पर हस्‍ताक्षर होते ही सबने राहत की सांस ली. अब बाकी मसलों पर आगे बढ़ने का मौका था. पंडित नेहरू अपने साथ सलाहकारों की फौज लेकर गए थे, इसके बावजूद आगे सार्थक चर्चा नहीं हो पाई. हालांकि अयूब खान अच्‍छे मूड में थे. अयूब खान ने सिंधु नदी के निचले हिस्‍से में बैराज बनाकर राजस्‍थान के सूखे इलाकों में पानी पहुंचाने का प्रस्‍ताव रखा. यही नहीं, वह बलूचिस्‍तान से प्राकृतिक गैस भी बॉम्‍बे सप्‍लाई करने को तैयार थे. जवाब में नेहरु ने पाकिस्‍तान को लाहौर से ढाका के बीच ट्रेन चलाने की इजाजत देने पर सहमति जताई, यह भी नेहरु की एक “बड़ी बेवकूफी” ही कही जाएगी. कश्‍मीर की उत्‍तरी सीमा पर चीनी गतिविधियों के बारे में भी चीन को बताया गया. हालांकि तब तक भारतीय अधिकारियों को इस बात का बिल्‍कुल भी अंदाजा नहीं था कि जम्‍मू और कश्‍मीर पर चीन का साथ पाने के लिए पाकिस्तान कश्‍मीर के उत्‍तरी हिस्‍से का एक बड़ा भाग चीन को दे देगा.

भारत और पाकिस्‍तान के बीच तनावपूर्ण रिश्‍तों के बावजूद यह संधि अब तक बची हुई है. जब भी पाकिस्‍तान की तरफ से आतंकवादी घटनाओं में बढ़ोतरी होती है, इस समझौते को खत्‍म करने की मांग उठती है. हालांकि इस दिशा में कोशिश के लिए कई राजनीतिक-कूटनीतिक और हाइड्रोलॉजिकल पहलुओं पर विचार के अलावा राजनीतिक सर्वसम्‍मति की जरूरत पड़ेगी. यह समझौता अभी तक इसीलिए बचा हुआ है क्‍योंकि भारत उस समझौते का सम्‍मान करता है जो नेहरु की बड़ी बेवकूफी के रूप में दर्ज है.

2001 में संसद पर आतंकी हमला हो या 2008 में मुंबई पर हमले, 2016 में उरी की घटना हो या 2019 में पुलवामा का आत्‍मघाती हमला, जब-जब ऐसे हमले हुए, भारत में “सिंधु जल समझौता” को खत्‍म करने की मांग ने जोर पकड़ा. भारत चाहता तो विएना संधि के दायरे में रहते हुए समझौता तोड़ सकता था, मगर उसने ऐसा नहीं किया. चूंकि समझौता खत्‍म करने को लेकर हिचक है, ऐसे में उसमें बदलाव की बहस तेज हो रही है. मगर इसके लिए दोनों सरकारों की सहमति चाहिए. ये सहमती कैसे बनेगी, कब बनेगी, किन शर्तों पर बनेगी, अभी ये कहना जल्दबाजी होगी.

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